BA Semester-5 Paper-2 Fine Arts - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास-II - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास-II

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2804
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास-II - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- काँगड़ा की चित्र शैली के बारे में क्या जानते हो? इसकी विषय-वस्तु पर प्रकाश डालिए।

सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. काँगड़ा के मुख्य केन्द्र कहाँ है। ?
2. काँगड़ा शैली का नाम किसके नाम पर पड़ा?

उत्तर-

काँगड़ा की चित्रकला शैली

संसार प्रसिद्ध शैली का जन्म 18वीं शताब्दी के अन्त में हुआ। इस शैली में मुगल और राजस्थानी दोनों कलाओं का सम्मिश्रण दिखाई देता है। आर्थर महोदय ने तो इस शैली पर पश्चिमी प्रभाव का वर्णन किया है। इस शैली के चित्रों को डेलवेक्स के चित्रों के अनुरूप बनाया गया है। उसने भी चित्रों में प्रणयाभिभूत नारी की प्रेम विह्वलता को प्रकट किया तथा वातावरण में बादल, पेड़, फूल आदि की पृष्ठभूमि दी । परन्तु इससे काँगड़ा की मौलिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसकी अपनी विशिष्ट परम्परा रही है।

काँगड़ा से सम्बन्धित तीन केन्द्र हमारे सामने आते हैं गुलेर, नूरपुर और तीरा सुजानपुर । गुलेर की अपनी तो शैली थी परन्तु काँगड़ा शैली के मुख्य केन्द्र तीरा सुजानपुर और नूरपुर ही है । एक विशेष बात यह है कि काँगड़ा में मुख्य रूप में अधिक चित्र नहीं बने। तीरा सुजानपुर ओर नूरपुर इसी राज्य के निकट थे और राजा संसार चन्द के ही संरक्षण में थे, इसीलिये इस शैली का नाम काँगड़ा पड़ा। इसकी कला को प्रश्रय देने वालों में हमीर चन्द ( 1700-47 ई.) अभय चन्द ( 1747-50 ई.) घमण्ड चन्द ( 1751-74 ई.) तथा राजा संसार चन्द का नाम उल्लेखनीय है । ये राजा कटोच वंश के थे और संसार चन्द के समय को इस राज्य का स्वर्ण युग कहा जाये तो अत्युक्ति नहीं होगी । चित्रकार तो वही थे, जिन्होंने गुलेर के चित्र रचे तथा कुछ मुगल चित्रकार थे, जो भागकर यहाँ शरण में आये थे, परन्तु राजा संसार चन्द के संरक्षण में जिस ईमानदारी, परिश्रम और सच्ची लगन से कार्य किया, वैसा पहले कभी नहीं हुआ । काँगड़ा शैली के सुन्दर होने का एक कारण था और वह यह कि इस सुन्दरतम चित्र शैली के विषय में सीमित थे। उन्हीं में कलाकार खो गया और पूर्ण एकाग्रचित होकर तन्मयता से चित्रों का निर्माण किया। राजा संसार चन्द का कला प्रेम और उदारता के कारण भी कलाकारों ने सुरक्षित जीवन का अनुभव किया और जो चित्र उन्होंने बनाये वे केवल चित्र न होकर महान कला - कृतियाँ होकर प्रकाश में आईं। कृष्ण के समान 'नायक' कोई भी नहीं हो पाया। पूरा श्रृंगार कृष्ण लीलाओं से भरा पड़ा है। पहाड़ी प्रदेश में भी कृष्ण भक्ति सर्वोपरि थी । इसीलिए अधिकतम चित्र कृष्ण लीलाओं पर ही आधारित मिलते हैं। महाराजा संसार चन्द के समय में 'भागवत पुराण' जयदेव लिखित 'गीत गोविन्द' 'बिहारी सतसई' केशवदास लिखित 'रसिक प्रिया' और 'कवि प्रिया' तथा 'नल दमयन्ती' की प्रणय कथायें चित्रित हुई। कृष्ण सम्बन्धी प्रणय लीलाओं का तो विशेष प्रकार से चित्रण किया है। रामायण और महाभारत के भी चित्रण इस समय बनाये गये।

यहाँ के प्रेम लीलाओं का चित्रण देखकर सुप्रसिद्ध कला समीक्षक श्री कुमार स्वामी ने सन् 1916 ई. में लिखा था, कि जो चीनी कला में लेण्डस्केप के चित्रण में प्राप्त हुआ है, वहीं यहाँ प्रणय चित्रण में एक उपलब्धि बन गई। 'गीत गोविन्द' पर आधारित श्रृंखलाबद्ध चित्र मिले हैं, जिन पर 'मन्कू' का नाम लिखा है, जो उस समय का प्रमुख चितेरा था। ये चित्र संख्या में 140 से कुछ अधिक हैं और कांगड़ा में बिहारी सतसई के 40 चित्र हैं तथा अन्य

बीस बिना रंग के हैं। गीत गोविन्द के चित्रों की रचना मन्यु के पुत्र खुशाला ने की, ऐसा महान् कलाविद डॉ. माया का मत है। कांगड़ा शैली के चित्रों में मुगल शैली की कलात्मक श्रेष्ठता के साथ वहाँ (काँगड़ा) स्वच्छन्द भावाभिव्यक्ति का सम्मिश्रण है। यह भी कहना अनुचित न होगा कि काँगड़ा की लोक कला में मुगल कला की भव्यता के समन्वय से काँगड़ा शैली का जन्म हुआ।

राजा संसार चन्द्र की मृत्यु के बाद कांगड़ा की चित्रकला का सूर्य अस्त होने लगा । यहाँ से चित्रकार बाहर जाने लगे। कुछ सिख राज्यों में चले गये कुछ जम्मू-कश्मीर चले गये और काँगड़ा में रचना कम हो गयी। लाहौर के किले में और महाराजा रणजीत सिंह की समाधि पर बाद में कांगड़ा शैली के चित्र दिखाई देते हैं।

काँगड़ा में सन् 1905 ई. में एक भूचाल आया जिससे वहाँ सभी कुछ अस्त-व्यस्त हो गया और चित्र भी बहुत कम बचे। इस भूचाल में बहुत से कलाकार भी मारे गये। यही दैवी घटना काँगड़ा शैली की समाप्ति के लिये काफी सीमा तक उत्तरदायी है।

काँगड़ा के मुख्य चितेरों में मनकू, खुशाला, किशन लाल, वसिया, पुरखू, फत्तू का नाम उल्लेखनीय है। ये लोग चित्रों पर नाम नहीं लिखते थे।

काँगड़ा शैली के चित्रों का विषय

काँगड़ा शैली के चित्रों का मुख्य विषय 'प्रेम' है जो लय, शोभा तथा सौन्दर्य के साथ दर्शाया गया है। राजपूत जाति में चारित्रिक प्रतिबन्ध बहुत थे । इसीलिए राजाओं ने चित्रकला में प्रणय लीलायें दिखाकर अपने कुछ सुप्त एवं अतृप्त भावों को शान्ति प्रदान की है। युद्धों के कारण जीवन अस्त-व्यस्त तथा अस्थिर था । किन्तु जब युद्ध से लौटकर ये लोग आते थे तो अपनी पत्नियों तथा प्रेमिकाओं से बड़े चाव से मिलते थे। उन्हें (स्त्रियों को) भी ऐसे अवसरों पर घर से बाहर जंगल में जाकर अपने पति या प्रेमी से मिलन का अवसर मिल जाता था।

प्रेम में वियोग और संयोग का बहुत ही सुन्दर चित्रण हुआ हैं। वियोग में तीन स्थितियाँ होती है- पहली तो 'पूर्वराग' अर्थात् नायक से प्रेम छिपाना या प्रेम के प्रारम्भ की स्थिति । दूसरी स्थिति 'मान' यानि हर समय प्रेमी का ध्यान रखना तथा बेचैन रहना। इस स्थिति में प्रेमी यदि थोड़ी देर के लिए भी आँखों से ओझल होता है तो वियोग का आभास होने लगता है। तीसरा वियोग उस समय हुआ जबकि नायक कुछ समय के लिए कहीं विदेश चला जाता है। यह विरह या वियोग की तीसरी स्थिति है। ये तीनों परिस्थितियाँ या दशायें काँगड़ा शैली में बड़ी मार्मिकता तथा सौन्दर्य के साथ दर्शायी गई हैं।

संयोग में भी हाव-भाव की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार 12 हाव-भाव माने गये हैं जिनमें नायक-नायिका के संयोग या मिलन से जो परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, वह 12 प्रकार से होती है। काँगड़ा में प्रणय लीला में संचारी भाव, आलम्बन और उद्दीपन सभी का बड़ी मार्मिक चित्रण किया गया। उद्दीपन को पुष्प, बादल चाँदनी, कोयल की कूक, संगीत, लाल, पीला रंग आदि से बहुत सुन्दरता से दर्शाया गया है। जब शरीर में प्रफुल्लता आती है और एक हिलोर सी उत्पन्न होती है उसे अनुभव कहते हैं, जिसमें हिलने डुलने आदि से आँखों तथा भृकुटियों की एक विशेष प्रकार की आकृति बनती है। यह सब इन चित्रों में मिलता है।

1. नायिका भेद - 'नायिका भेद' बड़ी कुशलता से काँगड़ा के कलाकारों ने चित्रित किया है । तीन प्रकार की नायिकायें मानी गई है। जिस प्रकार एक वर्णन के लिए दोहा कह कर बात समझाई जाती है, उसी प्रकार काँगड़ा के चित्र, रेखा तथा रंगों के वस्त्र पहले हुए कवितायें हैं।

मुख्य तीन प्रकार की नायिकायें मानी गई हैं-

(1) 'स्वकीया'
(2) 'परकीया'
(3) 'सामान्य' ।

स्वकीया अपने स्वयं की होती है, परकीया दूसरे की तथा सामान्य सबकी नायिका होती है।

स्वकीया नायिका के आठ रूप माने गये हैं जो इस प्रकार हैं-

(1) स्वाधीनपतिका,
(2) उत्का या उत्कण्ठिता,
(3) वासक सैया या वासक सज्जा,
(4) अभिसन्धिता,
(5) खण्डिता,
(6) प्रेषित पतिका,
(7) विप्रलब्धा,
(8) अभिसारिका ।

स्वाधीनपतिका - स्वाधीनपतिका वह नायिका है जिसका पति प्रेम करता है तथा उसका जीवन साथी है। इसी प्रकार से राधिका चित्रण है जिसमें कृष्ण उनके पैर दबा रहे हैं।

उत्का - वह नायिका है जिसका प्रेमी वायदा करके भी निश्चित समय पर नही आता है। उसी नायिका को वृक्ष के नीचे, नदी के किनारे चमेली के पुष्पों पर खड़ी हुई आदि रूपों में दर्शाया गया है। इन्हीं दृश्यों में एक पंक्षी का जोड़ा दिखाकर चित्रकारों ने परिस्थिति में और भी चाँद लगा दिये हैं। आकाश में बिजली व बादल वातावरण को और भी सुन्दर बनाते हैं।

वासक सैया - 'वासक सैया या वासक सज्जा' अपने प्रेमी की प्रतीक्षा में दरवाजे पर खड़ी दिखाई गई है। उसका चन्दन या सफेद शरीर दीपक की तरह जलता है तथा वस्त्र कल्पलता की तरह बहुत ही सुन्दर लगते हैं। काँगड़ा में यह नायिका धीरे-धीरे अपनी सहेली से अपनी व्यथा कहती है। शयन कक्ष सजाया जा रहा है और प्रेमी दूर नौका में बैठा हुआ है, एक सारस के जोड़े के पास। उधर घर में सफाई की जा रही है, एक औरत झाडू देती हुई दिखाई गई है। स्वागत की पूरी तैयारी है।

अभिसन्धिता - अभिसन्धिता वह नायिका है, जो अपने प्रेमी से असन्तुष्ट है और अविश्वास के कारण उससे लड़ती है या कटु शब्द कहती है, परन्तु जब वह जाता है तो वियोग का अनुभव करती है और दुःखी होती है। प्रेमी यह प्रयत्न कर रहा है कि यह मान जाये पर वह लड़ती है और नायक जाने लगता है। यह दृश्य काँगड़ा में बहुत सजीव दिखाया गया है, जिसमें राधा और कृष्ण को दर्शाया गया है। यह देखने की बात है कि लगभग हर जगह नायक कृष्ण हैं और नायिका राधा है।

खण्डिता - खण्डिता नायिका वह है जिसका प्रेमी रात को उसके पास न आकर किसी और स्त्री के पास रात्रि भर रहकर सुबह आता है, जिसको देखकर खण्डिता नायिका बहुत दुखी होती है। और विभिन्न प्रकार की ताड़ना करती है कि मुझे छोड़कर आप कहाँ रहे। नायक एक अपराधी की तरह खड़ा हुआ है। यह सब काँगड़ा के एक चित्र में बहुत ही सजीवता से दिखाया गया है।

प्रोषितपतिका - प्रोषितपतिका वह नायिका है जिसका किसी व्यापार से बाहर गया हुआ है। गुलेर की एक कृति की में बादल की गड़गड़ाहट सुनकर नायिका ऊपर छज्जे पर आती है। उसने एक चित्तीदार दुपट्टा ओड़ रखा है। ऊपर उड़ते हुए एक सारस युगल को देखती है, एक मोर जो उसमें प्रेमी का प्रतीक हैं, ऊपर गर्दन उठाता है, वर्षा होने वाली है और नायिका अपने नायक के सकुशल लौट आने की प्रार्थना करती है।

विप्रलब्धा - विप्रलब्धा वह नायिका है जिसने रात भर अपने प्रेमी की प्रतीक्षा की और उसके न आने से दुखी है। वह निराशा से अपने जेवर तोड़कर फेंकती है और पेड़ के नीचे पड़ी तुई पत्तियों पर खड़ी है। पृष्ठभूमि खाली है, जो कि अकेलापन तथा दुःख की सूचक है।

अभिसारिका - अभिसारिका वह नायिका है जो अपने प्रेमी से मिलने के लिए जाती हैं। काँगड़ा शैली में यह नायिका बड़े चाव से चित्रित की गई है। जो अन्धेरी रात्रि में मिलने जाती है उसे कृष्णाभिसारिका कहते हैं। जो चाँदनी रात में जाती है उसे शुक्लाभिसारिका कहा गया है।

काँगड़ा शैली के एक चित्र में कृष्णाभिसारिका का बड़ा सुन्दर चित्रण है । अन्धेरी रात्रि की समय, जंगल राह में एक साँप तथा चुड़ैल दिखाई देती है, बिजली चमक रही है पर अभिसारिका पर इनका कोई प्रभाव नहीं है, क्योंकि वह अपने प्रेमी से मिलने की आशा में सब कुछ भूली हुई है। उसने नीली साड़ी पहनी हुई है।

1. इसी प्रकार एक चित्र में - शुक्लाभिसारिका बड़ी सजीवता से प्रदर्शित की गई। पूर्ण चाँद निकाला हुआ है, चारों ओर रजत चाँदनी बिखरी हुई हैं और नायिका ने श्वेत वस्त्र पहने हैं वातावरण बहुत सुन्दर है।

2. स्त्रियों की आकृतियाँ - इस शैली में सबसे अधिक प्रभावशाली आकृतियों स्त्रियों की हैं। शरीर छरहरे हैं, आँखें धनुषाकार बनी हैं, उंगलियाँ बड़ी कोमल तथा लयदार बनाई हैं। इन चित्रकारों ने नायिकाओं का चित्रण करते समय इस बात का पूर्ण से ध्यान रखा है कि भारतीय परम्परा के अनुसार ही उनका आदर्श रूप बना रहना चाहिए। आदर्श के साथ ही उनका सौन्दर्य वर्णित है। गोल मुखाकृति, बड़ी-बड़ी भाव-प्रवण आँखें, पीनवक्ष तथा सुन्दर उंगलियाँ इन चित्रों में स्त्री सौन्दर्य की अभिवृद्धि करते हैं। यद्यपि ये चित्र परम्परागत हैं परन्तु काँगड़ा के चितेरों ने इनमें सुन्दर रंग योजना, अभ्यस्त तूलिका तथा जो नवीनतम प्रकार से वातावरण दिया है, उससे ये चित्र सर्वथा नवीन ही दिखाई देते हैं, पुरानापन समाप्त हो गया है। झीने वस्त्र, केल-कलाप तथा आभूषणों द्वारा नारी का बड़ा सुन्दर चित्रण है।

3. वस्त्र सज्जा - स्त्रियों को चोली, लहंगा और पारदर्शी चुन्नी पहनाई गई है। गले में माला, माथे पर बिन्दी, पैरों में पायल, हाथों में चूड़ियाँ तथा अंगूठी आदि पूर्णतया भारतीय परिवेश का घोतक करती हैं। पुरुषों को अंगरखा, पाजामा तथा पगड़ी बाँधे दिखाया गया है। कुछ-कुछ मुगल परिधानों की झलक इनके पहनावे में मिलती है परन्तु कृष्ण का जहाँ चित्रण है, वहाँ उन्हें पीला वस्त्र पहने दिखाया गया है। अन्य ग्वालों को छोटे-छोटे वस्त्र धारण हुए दिखाया है।

4. प्रकृति चित्रण - काँगड़ा शैली के चित्रों में वृक्ष, बादल, जल, जंगल आदि का बड़ा मनोहारी चित्रण हुआ है। विभिन्न प्रकार की लतायें संयोग के प्रतीक के रूप में दर्शायी गयी हैं। पृष्ठभूमि में सुन्दर पहाड़ों के दृश्य बड़े आकर्षक बनाये गये हैं। कल-कल करते झरने व जल का चित्रण बड़ी सावधानी से किया गया है। काली रात या चाँदनी रात के चित्रण में पूर्ण रूप से कलाकार का सफलता मिली है। चारों ऋतुओं का बड़ा सजीवता से चित्रण हुआ है। सर्दी में अग्नि के पास तापते हुए व्यक्ति, शरद ऋतु का वातावरण प्रस्तुत करते हैं। सावन में आकाश में छाये बादल, चमकती हुई बिजली वर्षा आदि को बड़े सुचारु रूप से प्रदर्शित किया गया है। होली खेलते हुए नर-नारी फागुन का मनोहारी वातावरण प्रस्तुत करते हैं।

वर्षा ऋतु में आकाश में बिजली, वर्षा आदि का बहुत सुन्दर चित्रण हुआ है। फागुन में होली खेलते समय नर-नारी उस ऋतु के सुखद वातावरण को दर्शाते हैं।

5. पशु-पक्षियों का यथास्थान चित्रण - राग-रागिनी नायिका भेद् आदि सभी प्रकार के के चित्रों में पशु-पक्षियों का चित्रण वातावरण को अधिक सुन्दर बनाने वाला प्रतीत होता है। नायिका के पास कौए को बोलना इस बात का द्योतक है कि नायक आ रहा है। ऐसा कहा जाता है यदि कौआ सुबह आकर बोले तो किसी के आने का शकुन होता है। वियोग में छज्जे पर खड़ी नायिका आकाश में एक बगुले का जोड़ा देखती है जो संयोग का प्रतीक है। वर्षा ऋतु में मोर का बोलना, वातावरण में यथार्थ पैदा करता है। इसी प्रकार हिरन, सारस आदि पशु पक्षियों का चित्रण बहुत सजीव है। कृष्ण के साथ गौओं का चित्रण है। कहीं-कहीं हाथी का बहुत सुन्दर चित्रण हैं।

6. महलों का चित्रण - काँगड़ा शैली में भव्य भवन व महलों का चित्रण है, जो कुछ-कुछ मुगल शैली से मिलता है। ये संगमरमर के बने प्रतीत होते है। जालियाँ मुगल स्टाईल की हैं तथा गुम्बद भी कुछ-कुछ मुगल शैली से मिलते हैं। कालीनों और परदों का बड़ा सुन्दर अंकन किया गया है।

7. परिपेक्ष्य व रंग - कांगड़ा के कलाकारों ने सीधे लाल, पीले और नीले रंग का प्रयोग किया है, जिनमें चमक है। मिश्रित रंगों का सुन्दर प्रयोग है। जिनमें गुलाबी, हारी, बैंगनी आदि हैं। परिप्रेक्ष्य का अधिक सही ढंग से ध्यान नहीं रखा गया परन्तु यह कहीं भी अखरता नहीं हैं। दर्शक इन चित्रों के सुन्दर रंगों, आकृतियों, गति तथा संयोजन में ही खो जाता है। लेकिन कहीं-कहीं परिपेक्ष्य का ध्यान भी चित्रकारों ने रखा है, जो 'एक ग्राम्य में आग' दृश्य में स्पष्ट है। एक घर में आग लगी है और दूर पर छोटे मकान तथा छोटी आकृतियाँ परिपेक्ष्य का ध्यान रखते हुए बनाये गये हैं। रंगों के संयोजन में काँगड़ा के कलाकारों ने कमाल कर दिखाया है। जो भी वातावरण दिखाया है, उसमें उसी से सम्बन्धित रंगों का प्रयोग हुआ है। यदि चाँदनी रात दिखाई है, जिसमें शुक्लाभिसारिका का चित्रण है, तो चन्द्रमा की रजत किरणें दर्शक को मुग्ध कर देती है। वर्षा ऋतु में बादल व मेघ बड़े सजीव बने हैं। कृष्ण अभिसारिका के चित्रण में रात्रि कांगड़ा के कलाकार के रंग संयोजन में दक्ष होने का प्रमाण है।

8. रेखा सौन्दर्य - काँगड़ा शैली को एक प्रमुख विशेषता उसमें रेखा सौन्दर्य है। अजन्ता के समान रेखाओं से भावाभिव्यक्ति, यहाँ की विशेषता है। महीन रेखाओं द्वारा आकृतियों में लय तथा छन्द पैदा किया गया है। अंग-प्रत्यंग की सुन्दरतम रचना चित्रकारों ने रेखाओं द्वारा बहुत ही संजीवता के साथ की। नेत्रों की बनावट में जिन महीनतम रेखाओं का कार्य है वह प्रशंसनीय है। कलाकार गिलहरी के बालों से अपनी तूलिका बनाते थे।

9. सोने व चाँदी के रंगों का प्रयोग - सोने व चाँदी के रंगों का प्रयोग जितना सुन्दर काँगड़ा शैली में हुआ है, इतनी सुचारुता से अन्य कहीं देखने को नहीं मिलता। वस्त्रों के आलेखन, आभूषणों आदि में भी सोने व चाँदी के रंगों से एक चमक आ गई। चाँदनी रात की चाँदनी भी कभी-कभी चाँदी के रंग से दिखाई गई है। बिजली चमकने का भी चाँदी के रंग से सुन्दर अंकन है । इसके अलावा बर्तन, हुक्का व भवनों के आलेखन में भी सोने व चाँदी के रंगों का प्रयोग है। इस सोने व चाँदी के रंग को इस प्रकार लगाया गया है, कि ये चित्र के वातावरण में खप जाते हैं, चुभते से दिखाई नहीं देते।

10. हाशियों का प्रयोग - कहीं-कहीं चित्रों में सुन्दर आलेखन द्वारा हाशियें दिखाई देते मुगल शैली के प्रभाव से हैं। कहीं-कहीं बिना आलेखन के हाशिये हैं और कहीं-कही बिल्कुल नहीं है।

अन्त में हम कह सकते हैं कि जो कमी राजस्थानी व मुगल शैली के चित्रों में रह गई, काँगड़ा में आकर कलाकारों ने उन सभी को यहाँ पूर्णता प्रदान की तथा यह शैली अपने में एक अनूठी तथा सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में प्रसिद्ध हुई। प्रसिद्ध कलाविज्ञ डॉ. एम. एस. रन्धावा के शब्दों में, 'काँगड़ा की चित्रकला रंगमय संगीत के अलावा कुछ नहीं है।' इससे अधिक उत्तम शब्दों में इस चित्र शैली की प्रशंसा नहीं हो सकती।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- पाल शैली पर एक निबन्धात्मक लेख लिखिए।
  2. प्रश्न- पाल शैली के मूर्तिकला, चित्रकला तथा स्थापत्य कला के बारे में आप क्या जानते है?
  3. प्रश्न- पाल शैली की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
  4. प्रश्न- पाल शैली के चित्रों की विशेषताएँ लिखिए।
  5. प्रश्न- अपभ्रंश चित्रकला के नामकरण तथा शैली की पूर्ण विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- पाल चित्र-शैली को संक्षेप में लिखिए।
  7. प्रश्न- बीकानेर स्कूल के बारे में आप क्या जानते हैं?
  8. प्रश्न- बीकानेर चित्रकला शैली किससे संबंधित है?
  9. प्रश्न- बूँदी शैली के चित्रों की विशेषताओं की सचित्र व्याख्या कीजिए।
  10. प्रश्न- राजपूत चित्र - शैली पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  11. प्रश्न- बूँदी कोटा स्कूल ऑफ मिनिएचर पेंटिंग क्या है?
  12. प्रश्न- बूँदी शैली के चित्रों की विशेषताएँ लिखिये।
  13. प्रश्न- बूँदी कला पर टिप्पणी लिखिए।
  14. प्रश्न- बूँदी कला का परिचय दीजिए।
  15. प्रश्न- राजस्थानी शैली के विकास क्रम की चर्चा कीजिए।
  16. प्रश्न- राजस्थानी शैली की विषयवस्तु क्या थी?
  17. प्रश्न- राजस्थानी शैली के चित्रों की विशेषताएँ क्या थीं?
  18. प्रश्न- राजस्थानी शैली के प्रमुख बिंदु एवं केन्द्र कौन-से हैं ?
  19. प्रश्न- राजस्थानी उपशैलियाँ कौन-सी हैं ?
  20. प्रश्न- किशनगढ़ शैली पर निबन्धात्मक लेख लिखिए।
  21. प्रश्न- किशनगढ़ शैली के विकास एवं पृष्ठ भूमि के विषय में आप क्या जानते हैं?
  22. प्रश्न- 16वीं से 17वीं सदी के चित्रों में किस शैली का प्रभाव था ?
  23. प्रश्न- जयपुर शैली की विषय-वस्तु बतलाइए।
  24. प्रश्न- मेवाड़ चित्र शैली के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  25. प्रश्न- किशनगढ़ चित्रकला का परिचय दीजिए।
  26. प्रश्न- किशनगढ़ शैली की विशेषताएँ संक्षेप में लिखिए।
  27. प्रश्न- मेवाड़ स्कूल ऑफ पेंटिंग पर एक लेख लिखिए।
  28. प्रश्न- मेवाड़ शैली के प्रसिद्ध चित्र कौन से हैं?
  29. प्रश्न- मेवाड़ी चित्रों का मुख्य विषय क्या था?
  30. प्रश्न- मेवाड़ चित्र शैली की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए ।
  31. प्रश्न- मेवाड़ एवं मारवाड़ शैली के मुख्य चित्र कौन-से है?
  32. प्रश्न- अकबर के शासनकाल में चित्रकारी तथा कला की क्या दशा थी?
  33. प्रश्न- जहाँगीर प्रकृति प्रेमी था' इस कथन को सिद्ध करते हुए उत्तर दीजिए।
  34. प्रश्न- शाहजहाँकालीन कला के चित्र मुख्यतः किस प्रकार के थे?
  35. प्रश्न- शाहजहाँ के चित्रों को पाश्चात्य प्रभाव ने किस प्रकार प्रभावित किया?
  36. प्रश्न- जहाँगीर की चित्रकला शैली की विशेषताएँ लिखिए।
  37. प्रश्न- शाहजहाँ कालीन चित्रकला मुगल शैली पर प्रकाश डालिए।
  38. प्रश्न- अकबरकालीन वास्तुकला के विषय में आप क्या जानते है?
  39. प्रश्न- जहाँगीर के चित्रों पर पड़ने वाले पाश्चात्य प्रभाव की चर्चा कीजिए ।
  40. प्रश्न- मुगल शैली के विकास पर एक टिप्पणी लिखिए।
  41. प्रश्न- अकबर और उसकी चित्रकला के बारे में आप क्या जानते हैं?
  42. प्रश्न- मुगल चित्रकला शैली के सम्बन्ध में संक्षेप में लिखिए।
  43. प्रश्न- जहाँगीर कालीन चित्रों को विशेषताएं बतलाइए।
  44. प्रश्न- अकबरकालीन मुगल शैली की विशेषताएँ क्या थीं?
  45. प्रश्न- बहसोली चित्रों की मुख्य विषय-वस्तु क्या थी?
  46. प्रश्न- बसोहली शैली का विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिए।
  47. प्रश्न- काँगड़ा की चित्र शैली के बारे में क्या जानते हो? इसकी विषय-वस्तु पर प्रकाश डालिए।
  48. प्रश्न- काँगड़ा शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
  49. प्रश्न- बहसोली शैली के इतिहास पर प्रकाश डालिए।
  50. प्रश्न- बहसोली शैली के लघु चित्रों के विषय में आप क्या जानते हैं?
  51. प्रश्न- बसोहली चित्रकला पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  52. प्रश्न- बहसोली शैली की चित्रगत विशेषताएँ लिखिए।
  53. प्रश्न- कांगड़ा शैली की विषय-वस्तु किस प्रकार कीं थीं?
  54. प्रश्न- गढ़वाल चित्रकला पर निबंधात्मक लेख लिखते हुए, इसकी विशेषताएँ बताइए।
  55. प्रश्न- गढ़वाल शैली की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की व्याख्या कीजिए ।
  56. प्रश्न- गढ़वाली चित्रकला शैली का विषय विन्यास क्या था ? तथा इसके प्रमुख चित्रकार कौन थे?
  57. प्रश्न- गढ़वाल शैली का उदय किस प्रकार हुआ ?
  58. प्रश्न- गढ़वाल शैली की विशेषताएँ लिखिये।
  59. प्रश्न- तंजावुर के मन्दिरों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
  60. प्रश्न- तंजापुर पेंटिंग का परिचय दीजिए।
  61. प्रश्न- तंजावुर पेंटिंग की शैली किस प्रकार की थी?
  62. प्रश्न- तंजावुर कलाकारों का परिचय दीजिए तथा इस शैली पर किसका प्रभाव पड़ा?
  63. प्रश्न- तंजावुर पेंटिंग कहाँ से संबंधित है?
  64. प्रश्न- आधुनिक समय में तंजावुर पेंटिंग का क्या स्वरूप है?
  65. प्रश्न- लघु चित्रकला की तंजावुर शैली पर एक लेख लिखिए।

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